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आठवाँसूक्त
ॠ. 5. 69
प्रकाशमय लोकोंके धारक
[ ऋषि मित्र और वरुणका सत्ताके लोकों या स्तरोंके धारकोंके रूपमें आवाहन करता है, विशेषकर उन तीन प्रकाशमय लोकोंके धर्त्ताओंके रूपमें जिनमें त्रिविध मानसिक, त्रिविध प्राणिक, त्रिविध भौतिक स्तर अपनी सत्ता-के प्रकाशको और अपनी शक्तियोंके दिव्य विधानको पा लेते हैं । उनके द्वारा आर्य योद्धाका बल बढ़ जाता है और वह उस अविनश्वर विधानमें रक्षित रहता है । प्रकाशमय लोकोंसे सत्यकी नदियाँ अपने आनंदके फलके साथ अवतरित होती हैं । उनमेंसे प्रत्येकमें एक ज्योतिःस्वरूप पुरुष सत्यकी त्रिविध विचार-चेतनाके रूपको उर्वर बनाता है । ये लोक जो आत्माके ज्योतिर्मय दिवसका निर्माण करते है, मनुष्यमें दिव्य और अनंत चेतनाको स्थापित करते ह और उसमें उस दिव्यशक्ति और सक्रियताको स्थापित करते हैं जिनके द्वारा हमारी सत्ताकी विस्तृत विश्वमयतामें समृद्ध आनंद और देवत्वका निर्माण साधित होता है । प्राणिक और भौतिक सत्ताके साधारण जीवनमें दिव्य क्रियाएं देवोंके द्वारा कुंठित और सीमित कर दी जाती हैं । परन्तु जय मित्र और वरुण हमारे अन्दर ज्योतिर्मय लोकोंको धारण करते है जिनमें इनं क्रियाओंमेंसे प्रत्येक अपने सत्य और शक्तिको प्राप्त कर लेती है, तब वें सदाके लिए पूर्ण और दृढ़ हों जाती हैं । ]
त्री रोचना वरुण त्रींरुत द्यून् त्रीणि मित्र धारयथो रजांसि । वावृधानावमतिं क्षत्रियस्यानु व्रतं रक्षमाणावजुर्यम् ।।
(वरुण मित्र) हे वरुण ! हे मित्र ! तुम दोनों (त्री रोचना) प्रकाशके तीन लोकोंको, (त्रीन् द्यून्) तीन द्युलोकोंको (उत) और (त्रीणि रजांसि) तीन अंतरिक्ष-लोकोंको (धारयथ:) धारण करते हो । तुम दोनों (क्षत्रि-यस्य अमति) योद्धाके बलकों (ववृधानौ) बढ़ाते हो, (अजुर्य व्रतम् अनु) अपनी क्रियाके अविनश्वर विधानके अनुसार (रक्षमाणौ) उसकी रक्षा करते हों । २०४
प्रकाशमय लोकोंके धारक
२ इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद् वां सिन्धवो मित्र दुह्रे । त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसृणां धिषणाना रेतोधा वि द्युमन्त: ।।
(वरुण मित्र) हे वरुण ! हे मित्र ! (वां) तुम्हारी (धेनव1) पोषक गौएं (इरावती:) धाराओंसे संपन्न हैं, (वां सिन्धव:) तुम्हारी नदियां (मधु- मत् दुह्रे) अपने मधुमय रसको स्रावित करती हैं । वहां (त्रय: द्युमन्त: वृषभास:2) तीन प्रकाशपूर्ण वृषभ (वि तस्थु,) विशालताओंमें स्थित है और (तिसृणां धिषणाना रेतोधा:) तीन विचारोंमे अपना बीज डालते हैं । ३ प्रातर्देवीमदितिं जोहवीमि मध्यंदिन् उदिता सूर्यस्य । राये मित्रावरुणा सर्वतातेळे तोकाय तनयाय शं यो: ।।
(प्रातः) प्रभातवेलामें, (मध्यदिने) मध्याह्नकालमें तथा (सूर्यस्य उदिता) सूर्यके उदयके समय मैं (अदिति देवीं) असीम दिव्य माताको (जोह- वीमि) पुकारता हूँ । मैं (मित्रावरुणा) मित्र और वरुणसे (सर्वतांता3) वैश्व सत्ताके निर्माणमें (तोकाय तनयाय) सर्जन और प्रजनन4के लिए और (राये) आनन्द-ऐश्वर्यके लिए (शं यो:) शान्ति और गतिकी (ईळे) प्रार्थना करता हूँ । ४ या धर्तारा रजसो रोचनस्योतादित्या दिव्या पार्थिवस्य । न वां देवा अमृता आ मिनन्ति व्रतानि मित्रावरुणा ध्रुवाणि ।।
(या) [ जो तुम दोनों ] क्योंकि तुम दोनों (रोचनस्य रजस:) अंतरिक्ष-के ज्योतिर्मय क्षेत्रके (धर्तारा) धारण करनेवाले हो (उत) और (पार्थिवस्य __________ ।. धेनब:-ये सत्यकी नदियां हैं, जैसे गाव:, प्रकाशमय गौएं, इसके प्रकाशकी किरणें है । 2. बृषभ है पुरुष, आत्मा या सचेतन सत्ता; गौ है प्रकृति, चेतनाकी शँक्ति । देवत्वका, भागवत पुत्रका सर्जन, सत्य सत्ताकी त्रिविध प्रकाश- मय आत्माके द्वारा त्रिविध प्रकाशमय चेतनाको उर्वर करनेसे साधित होता है, जिसके फलस्वरूप वह उच्चतर चेतना मनुष्यमें सक्रिय, सर्जनशील और फलप्रद बन जाती है । 3. यज्ञका कार्य वैश्वसत्ता और दिव्यसत्ताके निर्माण या ''विस्तार''मे, सर्वाताति और देवतातिमें, निहित है । 4. पुत्रका, मानव सत्ताके भीतर निर्मित देवत्वका सर्जन एवं प्रजनन । २०५
[ रजस: ] धर्तारा) ] पृथ्वीके प्रकाशमय क्षेत्रके धारक हो, इसलिए (आदित्या दिव्या) हे अनंतताके दिव्य पुत्रो ! (मित्रावरुण) हे मित्र ! हे वरुण ! (वां व्रतानि) तुम दोनोंकी क्रियाओंको जो (ध्रुवाणि) सदाके लिए दृढ़ हैं (अमृता: देवा:) अमर देव (न् आ मिनन्ति) क्षति नहीं पहुंचाते ।1 ____________ 1.अर्थात्, प्राणिक-स्तर और भौतिक-स्तरकी साधारण क्रियाएं अप्रकाशित हैं, अज्ञान और दोषसे पूर्ण हैं, इसलिए उनमें हमारी दिव्य और असीम सत्ताका विधान कुंठित और विकृत हो जाता है, और साथ ही बह सीमाओंके भीतर और विकारोंके साथ कार्य करता है । यह पूर्ण, स्थिर ओर निर्दोष रूपमें केवल तभी प्रकट होता है जब अतिमानसिक सत्य स्तर मित्र ओर वरुणकी विशुद्ध विशालता और सामंजस्यके द्वारा हमारे अन्दर धारण किया जाता है, और वह प्राणिक तथा भौतिक चेतनाको अपनी शक्ति तथा प्रकाश में उठा ले जाता है । २०६
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